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Wednesday, September 8, 2010
केतना पानी, घो घो रानी...
Monday, June 21, 2010
न्यूटन के दिमाग, केतना टन…!!!?
साभार: मिसिरपुराण के अलोता से
Wednesday, June 2, 2010
यात्रा वृतांत: अजमेर यात्रा में इस्कौनी बाबा के अत्याचार
जून के पहिला तारीख के दर्शन के निश्चित भईल रहे ३१ मई, सोमवार के रात ९ बजे ख्वाजा के नाम लेके यात्रा शुरू भईल बस डिलक्स रहे बाकी यात्रा कुछ ज्यादे ही डिलक्स भईल गरम हवा के थपेड़ा आ रेट-माटी-धुल के विषपान करत सबेरे अजमेर पहुंचनी, होटल में सामान रख पुष्कर दर्शन के प्लान बनल विश्व में एकमात्र मंदिर जवन ब्रह्मा के समर्पित बा, दर्शन कईनी लहकत घाम में १-२ आउरी मंदिर के दर्शन करके २ बजे दुपहरिया में अजमेर होटल पे वापसी भईल आजे ख्वाजा के पास भी हाजरी हो जयित त आउरी एक दिन रुके के कवनो मतलब ना त वापसी के टिकट भी बना लेनी रात के १०.३० पे बस रहे होटल में चाय पानी करते धरते ४ बज गईल तैयार होके खवाजा के दरबार में हाजिरी देनी दरगाह से वापस होतहोत ७ बजत रहे खाए पिए के त कुछ ना रहे, होटल में फेर से नहा धोके बस पड़ाव खातिर निकल गईनी १० बजे बस आयिल त बैग के यथास्थान रख के आपन सीट पकड़नी एसी के ठंढक में दिनभर के थकन भुलाये लगनी बस मात्र आधा भरल खुलत खुलत ४ गो इस्कॉन मंदिर के भक्त लोगन के पदार्पण भईल उ लोग पीछे के सीट पकड़ लेले लोग जयपुर तक के यात्री रहन जा खैर बस चलल हमार कपार के ठीक ऊपर एसी के हवा खातिर जवन छेद होला ओह में एगो टूटल रहे , त बस के पर्दा के ओह में कोंच देनी आ अँधेरा करे खातिर आपन रुमाल के आँख पे बाँध लेनी यात्रा शुरू भईल
रात के एक बजे जयपुर आयिल त नींद खुलल यात्री लोग में खलबली भईल उतरे खातिर, बस के पड़ाव १५ मिनट खातिर रहे पिछे के पुजारी लोग के एहिजा उतरे के रहे उ लोग हमनी के सीट से आगे निकलल त बहुत ही अजीब गंध आयिल बुझाईल केहू तीन दिन के पेट में के पचावल हवा उत्सर्जित कईले बा हमर आँख प के रुमाल नाक पे आयिल आउरी दोसर लोग के हाथ नाक पे खैर २ मिनट में सभे कोई उतरल हम भुखासल रहीं त सामने के होटल में चाय लेनी पहिलके घोंट पे हल्ला बुझाईल मामिला का बा देखे खातिर बस भी पहुंचनी त मालूम भईल कि एगो पुजारी जी जवन करीब ४० के आस पास होइहें बस में ही निवृत हो गईल बाड़े आ आपन धोती भी खराब कर देले बाड़े उ त बस से उतरते गायब होखे के फेरा में रहन, कि एकजना उनका के ध लेले लोग उनकर फजीहत करे ए शुरू कईलन त उ इ कहत निकल गईलन –
“मलमूत्र विसर्जन पर किसी का अधिकार है क्या?”
खैर अब आफत हमनी के रहे, एसी बस चारो तरफ से बंद, आ पीछे के सीट पे पुजारी जी के चउका पुरल, गंध के मारे केहू जात ना रहे आधा घंटा बित गईल, तब दोसर गाड़ी के मंगावल गईल उहो गाड़ी दोसर जगह से आवे के रहे आउरी १ घंटा विलम्ब के सुचना पे हमनी के मन मशोस लेनी जा आपन आपन सामान केहू तरह निकाल ले सभे कोई स्टैंड पे बयिठल ओह सज्जन के प्रति लोगन के हास्य और क्षोभ के मिश्रित भाव फूटे लागल हमहूँ त्रस्त रहीं त हमहूँ ओह चौपाल में शामिल भयिनी अब ओहिजा का का बयान बाजी भईल गौर करीं जा-
पहिला- “ इ पंडित लोग साले इतना खाते क्यूँ हैं कि पचा नहीं पाते?”
दूसरा- “अरे मुफ्त का धन होगा तो आप भी ऐसे ही खायियेगा “
तीसरा- “स्साला, बच्चा को भी पेशाब लगता है तो कम से कम दो बार बोलता है ये बोल नहीं सकता था गाड़ी कहीं कड़ी हो जाती ”
चौथा- “ अरे शरमा रहा होगा कि रोड किनारे कैसे जायेंगे !!! इस्कॉन के पाखानों में ततो फ्लश लगे हैं यहाँ कहाँ मिलेगा”
पांचवा कंडक्टर से- “ यार आगे से नोटिश लगा दो, कि बस में सवार होने से पहले , फारिग होएं ”
कंडक्टर- “ इ कांड हम अब तक के जिनगी में पहली बार देख रहे हैं”
पहिला- “खलिश घी का तरमाल खायेगा सब, देखे नहीं देह कयिसा मोटा के रखा है “
तीसरा- “ अरे उसी घी कि चिकनाई में निकल गया होगा.... हा हा हा बेचारा के कोई दोष नहीं है”
हा हा हा हा हा...
अब हंसी के अईसन फुलझरी छुटल कि सब कुछ भुला गईनी
एक जाना कहले कि हम एकरा के इन्टरनेट पे सनसनीखेज न्यूज बना के पेश करब ढेर बतकही भईल जवना के एहिजा लिखल मर्यादा से बाहर हो जाई... संक्षेप में इहे कहब कि उ पुजारी जी अपना साथे सभे ब्राह्मण के पारिवारिक रिश्ता के बखिया उधेड़वा देले क्षमा चाहब कि ओकर विस्तृत वर्णन एहिजा संभव नईखे
खैर दोसर बस आयिल, एह हास्य-क्षोभ तरंग में २ घंटा के विलम्ब हो गईल रहे, गाड़ी तुरंत खुलल अब हमरो भीतर के मिसिर बाबा कुलबुलाये लगले त घटना क्रम के फरमा दर फरमा आपन मगज में सहेज लेनी विचार एहे भईल कि दिल्ली पहुँचते कम्पूटर के कीबोर्ड खटखटाईब आ शाम तक रुआ सभे तक एह मजेदार यात्रा वृतांत के राखब बाकी संभव ना भईल थकावट कुछ विशेष रहे, मित्र के घरे २ रोटी नास्ता कर के आपन कमरा पे पहुंचनी त फेर सब कुछ भुला गईनी दिन के १० बजे से शाम के ६ बजे तक निर्विघ्न निद्रापान कर के तरोताजा भयिनी त इ घटनाक्रम के लिख पयिनी
Sunday, May 23, 2010
ढोंग
शंकर यहाँ डुगडुगी बजाता, हनुमान भी हाथ फैलाता है |
और कभी रखता है कोई मूर्ति, उसी में जिस थाली में खाता है |
बुद्ध भी यहाँ मिल जायेंगे, और मिलेंगी बहुतेरे काली माई |
कालिख तन पर और जिह्वा बाहर, आकर आपके आगे हाथ फैलाई |
कभी डाल चोला साधू का, अलखनिरंजन की ऊँची टेर लगाता,
दे बच्चा खाने को कुछ, बाबा का आशीर्वाद खाली नहीं जाता |
कभी आएगा कोई अघोरी, अस्थि-दंड खूब बजायेगा |
पढ़लेगा मस्तक की रेखाएं, खुद को त्रिकालदर्शी बतलायेगा |
घुमती है एक मण्डली,जो अजमेरशरीफ भी जाती है|
डाल दो कुछ चादर में ,चादर चढाने जाती है |
चौराहे पर एक बाबा मिलेगा, लोबान जला भूत भागता है |
दे दो इसको बस एक रुपया, ज़माने भर की दुआ बरसाता है |
देखा कभी एक नज़ारा ऐसा भी, आदमी काम्पने लगा गिरकर ,
पास कोई उसके ना फटक रहा, और पैसा बरसता था झरझर |
एक उर में और एक उदर में रख, दीनहीन कैसी ये माता है |
हाथ फैलाकर रही मांगती, चौराहे पर जब कोई रुक जाता है |
भरी जवानी तन का सौदा, बुढापा अब खटकता है ,
मन का सौदा कर रही हैं, हाथ अब दिन-रात पसरता है |
बहुत ही ऐसे ढोंग मिलेंगे, जो रोज़ हमें छला करते हैं |
हाय विधाता कैसी ये दुनिया, कैसे-कैसे जीवन रहते हैं |
Wednesday, May 5, 2010
देश के हालात: मिसिर पुराण के अलोता से
भारत की सरकार कहें तो, है हिजडों की फ़ौज,
देश के जनाजे में भी, सब उडा रहे हैं मौज |
जहाँ हिजडों का होता नाच, संसद है वो मंच,
देश द्रौपदी हो गया, दुशाशन हैं सब सरपंच |
किन्नरों के नृत्य में, क्या मिला कभी है ताल?
गीत अगर मालकोंस है, ढोलक पर बजे धमाल |
देश विभाजन, देश पर कब्ज़ा चिंता करता कौन?
जब सुम ही मंत्री भये, फिर शैतान रहे क्यू मौन |
इंच इंच जमीं जा रहा, जैसे गलित हो कुष्ठ,
गर्दन में तलवार फंसा, प्रजातंत्र है सुस्त |
Friday, April 23, 2010
वैशाखनंदन के प्रति
साभार- मिसिर पुराण के वैशाख पर्व के अलोता से
(जे दुर्बल आ निरीह होला ओकरा के लोग अलग अलग तरीका से सतावेला | अब गदहा जइसन शाकाहारी, रजकमुखेण उवाच्चित अपशब्दाहारी और निरंतर डंडायाम पीड़ाआहारी एह निरीह प्राणी के साहित्यकार लोग भी नईखे छोड़ले, मगज में केहू के कमी देखके ओकरा के तुलना एह निरीह प्राणी के सीधापन से कर दीं | माने गरीब के मेहरारू गांवभर के भौजाई | पढ़ीं एह वैशाखनंदन(गधा) के भलमनसाहत के एह रूप के आ आपन नजरिया बदलीं |)
चौपाई-
चैत बिगत वैशाख ऋतू आई, खर भूषण देखि हरसाई |
लहकत धुप देह सुखाई, खेत खलिहान सब सुन हो जाई |
तरुणी खरनी भी ली अंगडाई, गर्दन झटका के धुल उड़ाई |
देखि के अंगडाई खर इतरइहें, गर्दन फाड़ के गीत सुनइहें |
ढेंचू-ढेंचू सुनी सकल समाजा, जय जय जय हो खर राजा |
भईल रजक पुत के नींद हराम, मगज के गर्मी बढ़ावत घाम |
कोना में से बोंग उठवलस, नवकु तानसेन पर तान चलवलस |
भईल मध्यम सुर से पंचम सुर, झार दुलती के उडइले धुर |
दोहा-
एक ता खरनी के नजर के मारल, ओह पे बाजल बोंग |
राग बदल गईल भाग भी बदलल, बुद्धि जगला के जोग ||
चौ० -
गोड झटक के तुडले छान, एक क्षण में लउकल सिवान |
हंसत खरनी के देख लजयिले, राह नपले मुडी निहुरयिले |
नैन मट्टका के जागल अईसन जोग, पीठ पे बाजल अनघा बोंग |
मन मसोस के खेत में समयिले, थुथून से घास टुनगीययिले |
घास टुनगीआवत गोड बढ़ईले, एह खेत से ओह खेत में गईले |
सुखल घास से बहाल खलिहान, हरियरी खोजत बढ़ले सिवान |
चलत चलत लागल पियास , मुडी उठा लगईले पानी के आस |
बाकि देखले गांव अरियायिल, पाछे खेतन के घास ओरियायिल|
दो०-
देखि आपन खनिहारी, उपजल मन में विश्वास |
अनघा खा लेनी आज, भईल संतुष्टि के भास ||
चौ०-
अब सुखल घास केतना खयिहें, बाकि एही तरे अघयिहें |
पियर भईल सब जर के घास, बाकि खर के अलग विश्वास |
हम खयिनी भर भर के पेट, चर गईनी हम सउसे खेत |
अब त मन हमर गम्भिरायिल, आवे लागल अब जम्हाई |
तंदुरुस्ती बढे के इहे बा राज, जब संतुष्टि के मिले अनाज |
मूर्ख के उपाधि काहे देहब, आत्मसंतुष्ट के संत काहे ना कहब |
मुट्ठी भर घास में हम अघायीं, जरत वैशाख में हम मोटायीं |
नून भात पे देह फुलायिब, त रउओ काहे ना वैशाखनंदन कहायिब |
दो०-
वैशाख में जे मोटाई, वैशाखनन्दन कहाई |
इ उपाधि संत के, मुरख थोड़े समझ पाई ||
(शब्दार्थ- खर: गधा; रजक: धोबी; वैशाखनन्दन: गधा/मुर्ख)