साभार- मिसिर पुराण के वैशाख पर्व के अलोता से
(जे दुर्बल आ निरीह होला ओकरा के लोग अलग अलग तरीका से सतावेला | अब गदहा जइसन शाकाहारी, रजकमुखेण उवाच्चित अपशब्दाहारी और निरंतर डंडायाम पीड़ाआहारी एह निरीह प्राणी के साहित्यकार लोग भी नईखे छोड़ले, मगज में केहू के कमी देखके ओकरा के तुलना एह निरीह प्राणी के सीधापन से कर दीं | माने गरीब के मेहरारू गांवभर के भौजाई | पढ़ीं एह वैशाखनंदन(गधा) के भलमनसाहत के एह रूप के आ आपन नजरिया बदलीं |)
चौपाई-
चैत बिगत वैशाख ऋतू आई, खर भूषण देखि हरसाई |
लहकत धुप देह सुखाई, खेत खलिहान सब सुन हो जाई |
तरुणी खरनी भी ली अंगडाई, गर्दन झटका के धुल उड़ाई |
देखि के अंगडाई खर इतरइहें, गर्दन फाड़ के गीत सुनइहें |
ढेंचू-ढेंचू सुनी सकल समाजा, जय जय जय हो खर राजा |
भईल रजक पुत के नींद हराम, मगज के गर्मी बढ़ावत घाम |
कोना में से बोंग उठवलस, नवकु तानसेन पर तान चलवलस |
भईल मध्यम सुर से पंचम सुर, झार दुलती के उडइले धुर |
दोहा-
एक ता खरनी के नजर के मारल, ओह पे बाजल बोंग |
राग बदल गईल भाग भी बदलल, बुद्धि जगला के जोग ||
चौ० -
गोड झटक के तुडले छान, एक क्षण में लउकल सिवान |
हंसत खरनी के देख लजयिले, राह नपले मुडी निहुरयिले |
नैन मट्टका के जागल अईसन जोग, पीठ पे बाजल अनघा बोंग |
मन मसोस के खेत में समयिले, थुथून से घास टुनगीययिले |
घास टुनगीआवत गोड बढ़ईले, एह खेत से ओह खेत में गईले |
सुखल घास से बहाल खलिहान, हरियरी खोजत बढ़ले सिवान |
चलत चलत लागल पियास , मुडी उठा लगईले पानी के आस |
बाकि देखले गांव अरियायिल, पाछे खेतन के घास ओरियायिल|
दो०-
देखि आपन खनिहारी, उपजल मन में विश्वास |
अनघा खा लेनी आज, भईल संतुष्टि के भास ||
चौ०-
अब सुखल घास केतना खयिहें, बाकि एही तरे अघयिहें |
पियर भईल सब जर के घास, बाकि खर के अलग विश्वास |
हम खयिनी भर भर के पेट, चर गईनी हम सउसे खेत |
अब त मन हमर गम्भिरायिल, आवे लागल अब जम्हाई |
तंदुरुस्ती बढे के इहे बा राज, जब संतुष्टि के मिले अनाज |
मूर्ख के उपाधि काहे देहब, आत्मसंतुष्ट के संत काहे ना कहब |
मुट्ठी भर घास में हम अघायीं, जरत वैशाख में हम मोटायीं |
नून भात पे देह फुलायिब, त रउओ काहे ना वैशाखनंदन कहायिब |
दो०-
वैशाख में जे मोटाई, वैशाखनन्दन कहाई |
इ उपाधि संत के, मुरख थोड़े समझ पाई ||
(शब्दार्थ- खर: गधा; रजक: धोबी; वैशाखनन्दन: गधा/मुर्ख)