(ई रचना भोजपुरी संगम के जनवरी -२०१७ अंक में छपल बा )
“गोड़ लागीं ए बाबा !”
कउड़ सेंकत रमेसर हाँक मरले । पंडित घरभरन मिसिर भोरे भोरे
मुँह में दतुअन कचरत आ दायाँ हाथ में लोटा हिलावत चलल आवत रहन । दतुअन होठ आ दाँत
के मिलल जुलल पगुरांव प अपने आप कब्बो दायाँ गाल त कब्बो बायाँ गाल फेरात रहे ।
थूक आवे त दाँत में दतुअन के दबा के आगे
के दू दाँत के फांक मुंहे पिच्च से थूक देस । कान पर जनेऊ के तीन फेरा देवे में
स्वेटर आ गंजी एक ओरे से उचकत रहे ।
पंडित घरभरन मिसिर… गाँव
देहात में पुजाले । सतनराएन के कथा से लेके सप्तसती के जबानी घोंट के पी लेले
बाड़ें । शुम्भ-निशुम्भ आ कुम्भ ना जाने कई तरह के बियाह के मंतर जानेलन । अइसन मनई
से हर कोई आस राखेला कि ओकर समस्या के निदान त मिलिये जाई । अब उ भले पतरा देख के
बतावस भा जतरा देख के... लोगवा त पुछबे करी । सांझे पुछी, बिहाने
पुछी ... आते पुछी त जाते पुछी,
कब्बो नहाते त कब्बो मर मैदान जातो पुछी । त बाबा घरभरन से
काहे ना पुछी । लोग पुछल... लोग ???
अरे ना रमेसर पुछले हाँ । पुछले हाँ... अबहीं कहाँ... अबहीं
त पुछे के सुरता बनवले हाँ ... पांवलग्गी आ उहो दूरे से । मुँहे से उचरले हाँ ।
आसीरबादो मिलल ह । मुँह के बायाँ ओर के दाँत से दतुअन दबा के... अपना से बाएँ तीन
फर्लांग दूर पिच्च से थूकला के बाद । “...जै जै
रमेसर बाबू । आबाद रहीं.... अहा हा ! आग तापत बानी !? इहो
सिद्ध लोग के काम ह - धुनी रमावल आ पंचाग्नि तापल । रवा त पहिलहूँ के सिद्ध हईं ।
ना आगे नाथ ना पीछे पगहा... राउरे मरजाद बा सउंसे जगहा । कहीं... कुछ कहल चाहत
बानी का ??”
“ना ए बाबा,
कहे के का बा... देवता मनई के भोरे-भोरे दर्शन भइलो त पुन्न
ह ।”
“अहा हा हा... जीहीं,
जीहीं । खूब कहनी... बाकी ए रमेसर बाबू हई मर मैदान के
रास्ता रोक के दर्शन करे के ममिला गड़बड़ बुझाता ।”
“हा हा हा ... बाबा के बात । अब का कहीं ए बाबा... रवा अइसे त भेंटाईं ना ।
कब्बो फलनवा जजीमान किंहा छठीहार सतईसा त कब्बो चिलनवा जजीमान किंहा सराध । राउर त
गोड़ में चकरी लागल रहेला । अब रवा से भेंट करे खातिर इहे नीक राह लउकल ह । जानते
बानी गाँव देहात के लोग दिन में भले मत लउके बाकी साँझ बिहान सीवान ओरे भेंटा जाई
। अब घर से नजदीक जवन सीवान ओनही पठान ।”
“त आज हमार सीवान छेंकाइल बा । खूब कहनी बाबू साहेब । रुकीं... अब हेतना उतजोग
कइनी त राउरो समस्या सुनिए लिहल जाव । दू मिनट आउरी दम धरीं... आईं हई इनरा पर से
तनी दू बाल्टी पानी के इंतजाम करीं... हाथ मलीं आ मुँह धोईं । मर मैदान के मुँहे त
भगवान के नामो ना लेवे के... रवा कहीं जतरा पतरा के बात करब त दिक्कते होई ।”
रमेसर उठ के दू बाल्टी
पानी के बेवस्था कइलन । “जै
जै.. बड़ा गरम पानी बा एह इनरा के ।”
“नहइबो करब का ए बाबा ?”
“अरे ना ना... बड़ी जाड़ बा हो... घरही नहाइब । अबही त मंतर स्नाने से काम चली...
दू दिन बाद सकरात आवता । बनारस के प्रस्थान होई, ओहिजे गंगा जी में भर जाड़
के स्नान के फल लेहब ।”
“सकरात गुने त हमहूँ अइनी हाँ... अब रवा से का छुपल बा । सकरात पर कुछ शंका
समाधान त रवे नू कर सकीले ।”
“लीं...भल कहनी । सकरात पर पुछब आ उहो सूखे सूखे । रवा सोझे हाथ मुँह धोके बइठल
बानी आ खाये पीएवाला परब पर बतकही कइल चाहत बानी .... ई ना होई । मंगाईं पाव भर
चूड़ा, गुड़ आ चार पाँच गो लाई-तिलवा तब नू गेयान के गठरी खुली ।”
“ए बबुआ दुर्गेश,
तनी हाल दे घरे धाव.... माई से सेर भर चूड़ा, गुड़
लाई तिलवा मांग के लाव... बाबा के सीधा देवे के बा । भाग के जा आ धउड़ के आव त” –रमेसर
आपन लईका के कहलें । “ए बाबा रवो शुरू करीं,
पनपियाव त आवते बा...”
“हं हं काहे ना... तनी जगह बनायीं । जाड़ में कउड़ के आग से बड़ सुख का होई... हाँ
त रमेसर बाबू ,
का पुछे के रहल ह ?”
“बाबा, एगो शंका रहल ह,
सकरात में दहीये-चूड़ा आ खिचड़ी काहे ?”
“जै जै... बड़ा नीक पुछनी । माने कोतवाल से कोतवाली के हाल पुछल जाला । सब भेद
खुल जाई त हमरा अगिला बेर से ना चूड़ा भेंटाई ना लाई तिलवा के नेवान होई ।”
“हा हा हा... रवो नू ,
बतिया के कहाँ से कहाँ ले जाइले । शंका एह से आइल ह कि केहू
एकरा के खिचड़ी कहेला,
कहीं सकरात,
कहीं पोंगल आ सब जगहा लगभग एके लेखा विध वेव्हार तिल गुड़
के... खिचड़ी के... इहे बड़ा कन्फूजन हो गइल कि ई काहे आ कइसे... आ अइसे त कबसे ?”
“लीं... राउर शंका त लमहर राह लेता । एगो पुछब त दोसर निकली । दोसर त तिसर ...
रुकीं बतावत बानी... लीं हई देखीं पनपियाव आ गइल । रवो सभे लीहीं । अब बात कुछ
गंभीर होई त मुँह चलत रहे ।”
हं त रवा सभे जानते होखब
हमनी के पुरनिया के... बड़का वैज्ञानिक सोच रहे लोग के । रीत रिवाज आ विध वेव्हार
से समाज के अस बांध के रखलस कि देह दशा तनिको ना बावें होई ना दहीने । जेतना लोक
परब बनावल गइल उ उहे लोग के देन ह । प्रकृति,
समय आ भौगोलिक स्थिति के सटीक विश्लेषण जेतना पुरुखा लोग कह
गइल बा ओतना आज के वैज्ञानिको जुग में अंदाज लगावल संभव नईखे । माटी, पानी, हवा, आकास, धूप, छाँव
जईसन प्राकृतिक चीजो वैज्ञानिक यंत्र रहे ।
“हाँ, बतिया त साँच क़हत बानी... का, कब आ कइसे के वेव्हार ई त
सांचहूँ बतावल बा... त फेर आगे कहीं ।”
“देख ! भारत के भौगोलिक स्थित एक नइखे । समशीतोष्ण प्रदेश कहाला । कहीं कंपकपात जाड़ त कहीं
चिलचिलात गरमी । कहीं लहलहात खेत,
कहीं जंगल त कहीं पहाड़ आ पठार । कुछ प्रदेश में नदी नाला
आहर पोखर के जाल त कहीं सालों भर सुखाड़ । अब अईसन परिस्थिति में कवनो लोकपरब मनावे
के तरीका आ समय बिलकुल अलग होखबे करी ।
पूरा भारत में जगह आ सुविधा के अनुसार लोक-परब के मनावे के विधि आ समय अलग
बा । बाकी सभे के पाछे एके उद्देश्य इहे बा
कि मय समाज एह परब में गुंथा जाव । ना बड़-ना छोट, ना
छूत- ना अछूत, एह लोक-परब में सब भेव मिट जाव । लोक
परब के अबूझ संसार के रीति रिवाज आ विधि के पाछे जवन पुरुखा पुरनिया के वैज्ञानिक
सोच छुपल बा उ धेयान देवे योग्य बा ।”
“साँच बात”-
रमेसर के साथे ओहिजा बइठल दू जाना हुंकारी भरले ।
“जाड़ के मौसम में शरीर के ज्यादा ऊर्जा के जरुरत पड़ेला । देखते बाड़ऽ कि बगैर एह
आग के तापले देह के हाड़ जरनेटर लेखा हिलत बा । ठंढा जगहा में लोग खूब माँस मछरी खाला कि देह गरम रहो । हमनी
के का मर मसाल,
मकरध्वज आ चवनप्रास । एतना तक त ठीक बा कि खाए पिये से
गर्मी आ जाला बाकी एकरा साथे महनतों के जरूरत पड़ेला । बाकी जाड़ा के मौसम में लोग
ऊर्जा के अभाव में आलस्य के कोरा में बइठल रहेले । अब बदलत प्रकृति के अनुसार हरेक
जीव जन्तु, पेड़ पौधा अपना के ढाल लेला आ प्रकृति के साथ समरस हो जाला बाकि मनुष्य के आपन
प्रकृति बा । समस्त संसार पे विजय के चाह राखेवाला मनुष्य अपना के प्रकृति के साथ
ना बदलेला आ आपन नुकसान करेला ।”
“हाँ बाबा, बतिया ठीक कहत बानी । हमरो मन करत रहता कि खरिहान में खटहुल
में जाके पुअरा के गरम बिछावना पे दिन भर चद्दर तान के सुतीं । बाकी जानते बानी
गाय गरु , खेती बाड़ी के काम छोड़ के नींद लागो । चवनपरास से इयाद पड़ल ... अबकी सुदेशन वैद
का जाने चवनपरास बनवलन कि ना... पिछला साल त बाजार से लेनी त बुझात रहे कि सकरकंद
के हलुआ होखे । सुदेशन वैद के बनावल एक चमच खाये त देह पर से सुटर शाल सब उतार
जाय...”- मड़ई जादो कउड़ के आग उटकेरत कहलन ।
“अरे मरदे दम धरऽ... तहरा के सुनीं कि बाबा के”- रमेसर खिसियइलन । “हाँ त
रवा कहत रहीं बाबा... बड़ा नीक जानकारी बा”
“अरे ना हो,
मड़ई ठीके इयाद करइलन ह सुदेशन वैद के... बड़ा विद्वान आदमी
उहो... ढेर बात उनको से होला । उहे कहत रहन कि वैदई में मानल जाला कि शरीर के
छलावे में तीन चीज के ईंधन काम करेला । आ एह तीनों के तनिका से हेरफेर से शरीर मे
रोग बेआधी हो जाला । वैद जी शरीर में वात (वायु) , पित्त आ कफ रहेला आ एकरे
के त्रिदोष कहत रहन । इहो बतावत रहन दोष के प्रकृति के अनुसार ही खानपान आ उपचार
में बदलाव करल जाला । माने जइसन देवता ओइसन पूजा । अब सुनऽ एह सकरात के हाल... उहे
वैद जी के भेद खोलल ह । आसीन (आश्विन),
कार्तिक महिना में पित्त के प्रकोप ज्यादा होला । शरीर के
भीतरियो आग बा जावना के पित्त कहाला आ एकर प्रकृति अमलीय ह, जे
खाना पचावे के काम में आवेला । बाकी जब एह आग के दंवक अपना मान से तेज हो
जाला त आंत के नुकसान पहुंचावे ला । पित्त
के प्रकोप से शरीर में जलन,
पेटदर्द,
उल्टी,
पेट के दोसरो रोग जनम लेला । आ एह पित्त के प्रकोप तब आउरी
बढ़ जाला जब ठंढ भगावे के फेरा में लोग अनाप-सनाप चीज खायेला । तेज मसाला, गरम
पेय, शराब आ मांसाहारो एक बड़ा कारण बा पित्त प्रकोप के । आ एह तरह के खान पान के
प्रयोग बहुत पहिले से कर रहल बा । अब एह शारीरिक पित्त के शांति पूस आ माघ के
सकरात के समय करल जाला ।”
“वाह बाबा, हम त जानत रहीं कि रवा खाली मंतरे जानीले... रवा त हेतना निमन से वैदयी के
बातो बतावत बानी ।”
“अरे इ सब अनुभव के बात ह । लोग से जाने सीखे ले मिलेला । त कहत रहीं कि मकर
सकरात के दिन नया धान के चूड़ा (चीवड़ा,
पोहा),
दही के साथे नया फसल के गुड़, तिल के खाये के प्रथा सगरे
बा । अब सुनऽ आउरी विज्ञान के बात । पुरनिया सब जवन खोज कइले नयका लोग अब खोजता ।
सोचऽ घर के नाली जाम होला त का कइल जाला?”
“फराठी भा लग्गी से गाद आ कचड़ा के निकालल जाला भा आगे ठेल दियाला कि पाछे के
पानी निकल जाव ।”-रमेसर कहले ।
“चाबस बाबू साहेब... हम एही से नू कहिला कि रवा सिद्ध हईं । बात के कोर पकड़ के
सीधे जड़ तक पहुंचीले । इहे चीज त पेटवो खातिर कइल जाला । अब पेट में लग्गी ना नू
कोंचब.... त एकरा खातिर अइसन वेवस्था कइल गइल कि मय जमा खर्चा बिना हिंग फिटकिरी
के निकल जाव । हमनी के खेतिहर समाज,
एही प्रकृति से उपाय लेलस । हई चूड़ा के गुण जानते बाड़...
पाव भर खाइब त कुछ देर में सेर भर खइला लेखा लागि । पानी मिली त पातर सुखल चूड़ा
फूल के आपन औकात से बेसी हो जाला । त पेट के आंत में सटल जेतना गंदा पदारथ बा ओकरा
के चूड़ा सोख ली । दही के गुण त जानते बाड़ कि पेट के निरोग रखेला । आ साथे साथ गुड़
पेट के अग्नि के ताप के दूर करेला ।”
“वाह, ई त सेतिहा के लाख रोपेया बराबर बात बतवनी । बाकी तिल-गुड़ , तिलकुट
लाई काहे ?”
“अरे ई त हमरो न मालूम रहे । वैद जी कहत रहन कि भुंजल तिल आ गुड़ से कब्ज ठीक हो
जाला । अब पुरखा पुरनिया लोग ई जानत होई तबे सकरात के पेट सफाई के पूरा इंतजाम एके
साथे कर देले रहे ।”
“सही कहत बानी बाबा... पुरनिया लोग हमनी से जादे विद्वान रहे । हरेक चीज के
उपाय सेतिहे आ सहजे बता देलस लोग...”
“अरे आगे सुनऽ ... दिन में चूड़ा-दही से पेट के जब मल के निकास हो गइल त रात के खिचड़ी... कि जड़ी पच जाये आ पेट के
आरामों मिल जाये ।”
“ए बाबा राउर बहुत बहुत धन्यवाद एह
शंका दूर करे खातिर । बाकी एगो आउर सहजे प्रश्न उठट बा कि खाये पिये से त बुझा गइल
कि शरीर के लाभ मिली बाकी हई तिलंगी
(पतंग) काहे उड़ावल जाला ?”
“हा हा हा... कहनि हाँ नू कि आदमी के स्वभाव ह आराम करे के... पेट भइल भारी त
अब का लदब व्यापारी । माने अघाइल बैला के हौ ... पेट भरल ना कि देह हाथ सोझ करे आ
आराम के फिकीर । त पतंगबाजी से माघ के गुनगुना घाम देह में लागो आ खेलत कूदते चूड़ा
के भारीपन दूर हो जाय त का हरज ।”
“वाह, माने आम के आम गुठली के दाम वाला बात”
“अरे अतने ना,
आउर सुनऽ... एह
पतंगबाजी में योग साधना घुसल बा । भारतीय साधना पद्धति में बिन्दु साधना एगो
महत्वपूर्ण अंग ह । एह साधना में एक बिन्दु पे धेयान केन्द्रित कराल जाला । आँख, बुद्धि
तेज करे के सबसे बढ़िया उपाय लईकन के पतंगबाजी ह । पतंग के हरेक लोच आ कलाबाजी के
साथ मन आ शरीर के मेल साधना के अनूठा रूप ह । सकरात के दिन के चूड़ा दही के भारी
भोजन के खेल कूद में पाच जाय आ साथे एक साधना हो जाये , एही
सोच के साथे सकरात के पतंगबाजी जोड़ दियाईल ।”
“बाबा त एह में पूजा पाठ कवना काम के ?”
“लऽ... लगल नू आपन बुद्धि लगावे । हम कहत रहीं
नू कि भेद जानते हमार दान दक्षिणा पर आफत हो जाई आ तू अबहियें ओकर झलक
देखावे लगल ।”
“ना बाबा, राउर सीधा-पानी त चलते रही,
बस इहे अंतिम शंका रहल ह । जब एतना बता देनी त इहों बता दीं
।”
“अच्छा त इहों सुन ल... सकरात खाली लोकपरब ना ह । ई पुरखन के वैज्ञानिक सोच से
उपजल, मौसम के संधिकाल में शरीर के शोधे के परब ह । खात पियत खेलत कुदत एगो बड़
स्वास्थ्य रक्षा के उतजोग हो जाये आ एकरा में हिंग ना फिटकरी खाली आनंदे बरसे त
इहे नू लोकपरब के असली माने कहाई । सुरूज साक्षात ऊर्जा के प्रतीक हवें, अब
राशि ग्रहचाल से उनकर स्थिति जवन होखे,
बाकी एह परब में उनको के पूजा करल जाला । एह घरी सब नया
अन्न आवेला त हरेक खेतिहर के ई कर्तव्य होला कि एकरा खातिर प्रकृतियो के धन्यवाद
देवे । अब एह में प्रकृति के इयाद कइल,
पुरखा पुरनिया के इयाद कइल आपन कुल खानदान के इष्ट, गाँव
के देवता के पूजा कइल त कवनों जबून काम बा ना... बाकी के सब कथा कहानी त हमनी के
जजिमनिका चलावे खातिर ह । ल इहे... बुझाता नौ दस बज गइल । ईंहा बात करे के फेर में
ढेर कुबेर हो गइल । रमेसर बाबू,
आगे से अइसे जन रोकब... । चलीं जै जै सभे के....”
*****