धरम के बाजारू चश्मा हटा के देखीं त जेतना भी परब त्यौहार बा , सब लोक-परब ह । सकरात, छठ, होली दिवाली, नवरात्र , सतुआन आ ना जाने केतना परब । सभे परब सामाजिक समरसता बनावे खातिर कवन विधि अपनवले, इ ध्यान देवे वाला बात बा । उदाहरण में एहिजा सतुआन पे चर्चा करब । बाकी परब में रउआ सुधि पाठक लोग अंदाज लगा लीं ।
सतुआन भा सतुआ सकरात (संक्रांति) त नामे से बुझा जाला कि एही दिन के सत्तूआ के सम्बन्ध बा । बाकी काहे , चर्चा आगे बा । बिहार (संगठित)- पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहाँ सतुआन मनावल जाला ओही दिन बंगाल में में “पैला (पीला) बैसाख” परब आ पंजाब में बैशाखी मनावल जाला । बंगाल आ पंजाब के नया साल एही दिन से शुरू होला । दक्खिन भारत में इ लोक-परब के नाम बिशु त आसाम में बिहू कहल जाला । कमोबेश भारत के हरेक जगहा इ लोक-परब मनावल जाला । सतुआन, सकरात, मेष संक्रांति, वैशाखी, पैला बैशाख, बिशु भा बिहू सभे के मनवला के पाछे एके कारण बा – नया फसल के अईला के आनंद मनावल आ आपन इष्ट देवता के धन्यवाद देवे के ।
सतुआन हरेक साल 13-14 अप्रैल के मनावल जाला । खगोल शास्त्र आ अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार 21 मार्च के दिन-रात बराबर होला । ओकरा बाद दिन आ रात के अनुपात बदल जाला । दिन बड़ आ रात छोट होखे लागी । इ समय ह नया अन्न के आवे के । दलहन फसल के कटनी एही समय शुरू होला । गेहूं के हिंदी में “कनक” कहल जाला आ “कनक” के दोसरका अर्थ सोना भी होला । पियर दह-दह सोना के रंग में रंगायिल खेत के देख के किसान के मन पोरसा भर उछ्लत रहेला । सरसों, गेहूं के पौध गोटाइल बाली के भार से झुकल जात बा । माने धरती के देह से निकलल आ धरती के खून से पोसाइल आपन समृद्धि के धरती के ही समर्पित करत– “त्वदीयं वस्तु देवर्षे, तुभ्यमेव समर्पये ” ।
किसान धरती के सेवा करेले आ बदला में धरती आपन छाती फाड़ के फसल देवेली । एकर आनंद उहे जे माई आ बेटा के बीच होला । किसान माई धरती के धन्यवाद देवे खातिर वैशाख के एह विशेष दिन के उत्सव के रूप में मनावेले । एह दिन नया अन्न खाए के महातम ह । सतुआन में भी इहे होला बाकी तनिक पुरनिया लोगन के वैज्ञानिक सोच आ लोक संस्कृति के बचावे के जेतना विध एह सतुआन में बा, उ दोसर परब में ना लउके ।
सतुआन के दिन सत्तुआ (नया अनाज विशेष चना-जौ के भूंज के चूरन कईल) के साथे आम के टिकोढा, गुर, दूध खाए आ नया घईला के पानी पिए के महातम बनवल गईल । आ इहे कुल्हि दान धरम करे के । सतुआन में सत्तुआ खाए के कहल जाला एकरा पाछे कुछ वैज्ञानिक सोच रहल ह । नया अनाज में गर्मी होला, नया अन्न के सेवन से कुछ शारीरिक प्रकोप भी होला । अनाज के इ गर्मी पेट में भी गरमी करेला । वायु विकार बढे के इ बड़का कारण ह । कबो कबो नया अन्न खयिला से पेट भी झरे लागेला , जेकरा के हमनी कीन्हा चईतार लागल कहाला । भुजल अन्न के चूरन पेट में वायु के दोष दूर करेला । कच्चा आम में अमल के गुण होला जे वायु विकार के दूर करेला आ पाचन शक्ति के बढ़ावेला । एह समय मौसम के बदलाव होला एह से शारीर में कफ भी उत्पात मचावेला एह से गुर भी शामिल कर लेवल गईल । साथ में घईला के ठंढा पानी माने शारीरिक गरमी जे नया अनाज से हो रहल बा ओकरा के शांत करे के । ओइसे एक दू बरखा के बाद जब वातावरण ठंढाला तब नया अनाज के गर्मी भी शांत हो जाला । बाकी लोक-परब के बहाने तन-मन के इलाज भी हो जाए आ उत्सव हो जाए त का हरज बा ! अब एतने उत्जोग में मय समाज के कईसे बंधाईल इ पुरुखा-पुरनियन के सोच रहे ।
लोक-परब के माने इ जेह में समाज के हरेक वर्ग के कुछ ना कुछ योगदान होखे । ए ही परब त्यौहार में सभे के आमदनी आ उत्सव के जरिया बने एकर ख़ास धेयान देवल गईल । आज के बिगड़ल परिभाषा में जजिमान आ पुरोहित के माने उहे जे पूजा पाठ करावे आ दान दक्षिणा लेवे आ देवे । दान देवेवाला जजिमान आ लेवेवाला पुरोहित । बाकी इ परिभाषा के मूल रूप में इ ना रहे । समाज में हरेक उ जजिमान रहे जे केहू से कवनो काम लेत रहे । दोसरका तरह से कहीं त “सेवा देवेवाला” आ “ सेवा लेवेवाला” एक दूसरा के जजिमान रहलन । आ इ सब कर्म प्रधान रहे । हज्जाम के सेवा देवे वालन के जेतना ग्राहक उ ओकर जजिमान , एही तरह समाज के चर्मकार, कुम्हार, मेहतर जईसन सेवावालन के भी जजिमान रहन । एतने ना सामाजिकता में जजिमान के क्रय बिक्री भी होत रहे । बंटाई भी होत रहे । इन्हा तक कि दान दहेज़ में भी जजिमनिका दियात रहे । माने दहेज़ लेवेवाला अब जजिमान के सेवाकर्ता हो जाई आ एह से जेतना भी कमाई होई उ ओकर हो जाई । इ एगो समाजिकता के रूप रहे जेह में एक दोसरा के सहारा देके आगे बढ़ावे के धेयान राखल गईल रहे ।
सतुआन खाली किसान के परब ना ह, घुन्सारी झोंकेवाला, अनाज पिसेवाला, माली आ कुम्हार सभे के परब ह । नया अनाज त किसान किंहा आईल, घुन्सारिवाला त खेती ना करे बाकी जब उ अनाज भुंजे के सेवा दी त कुछ अनाज ओकरो भेंटाई । माली आम के टिकोढा दी त अनाज ओकरो भेंटाई । गुर खातिर बनिया के आ नया घईला देके कोंहार के भी कुछ नया अनाज मिली । अब दान-धरम कई के गरीब-गुरुबा आ ब्राहमण के भी नया अनाज दियाई । माने मय समाज केहू तरे नया अन्न में आपन आपन हिस्सेदारी राखेला । आ जब इ नया अन्न घर में आईल त उपरवाला, आ इष्ट के धन्यवाद देत परब त मनबे करी ।
लोक-परब के इहे माने ह जेह में सब के सहभागिता आ सहभोजिता रहे । एह परब मे कवनों छुआछुत ना मानल जाए । अगर गौर करब त छठ जईसन लोक-परब में जे समाज मे सबसे अछूत रहल ओकरे बीनल दउरा आ सूप जादे पबितर । आ कुल एही तरह के बात बाकी लोक-परब मे भी बा । बस आपन नजरिया बदल के देखब त आपन पुरखन के सोंच पे गर्व होई ।
बाकी आज के समाज के रूप बदल गईल बा । आज के आदमी सामाजिक ना होके व्यक्तिवादी हो गईल बा । संयुक्त परिवार जे समाज के छोट रूप रहे विलुप्त हो रहल बा आ साथ में लोगन के सामाजिकता के धारणा भी । बदलत परिस्थिति में समाज के कर्म क्षेत्र भी बदल गईल आ साथ में आवश्यकता भी । बाजारवाद हर जगहा आ गईल । शौपिंग मौल आ जनरल स्टोर सेवाकर्ता आ हमनी के उनके जजिमान । रोपेया के भावे परब त्यौहार मनायीं । अईसन बदलत वातावरण में लोक-परब मनावल खाली मन के बह्लावल ही कहाई । (इ लेख भोजपुरी के लोकप्रिय ई-पत्रिका आखर के अप्रैल 2015 अंक में छप चुकल बा )